Monday, October 26, 2020

मेघों का प्रेम


 

 ◆◆ मेघों का प्रेम ◆◆


हृदय मेघों का जब भी प्रेम में पिघल जाता है
बन के बूँद बरखा की धरा पर बरस जाता है
महक उठता है तन मन भूमि का सौंधी सी ख़ुशबू से
मधुर स्पर्श बूँदों का जब धरती के मन में होता है

प्यासी धरती के सूखे अधरों की बेचैन तड़पन को
कारे मेघों से बेहतर भला कौन जान पाता है
राह जिसकी ताकती है दिन रात ये धरती
वो निर्मोही सा घन भी तो बड़ी देरी से आता है

गरजकर तीव्र बेचैनी जब अपनी दिखाता है 
चमकती दामिनियों में तड़प अपनी सुनाता है
मिटा सन्ताप सारा धरा का कण कण भिगाता है
टूटकर अभ्र के मन से अवनि के तन में समाता है

कर श्रृंगार धरती का हरित अस्तर ओढ़ाता है
लुटाकर प्रेम अविरल नव अंकुर खिलाता है
सहती है धरती जितनी नभ के विरह की ज्वाला
वही पीड़ा वो बादल भी सहकर के आता है

नहीं होता सदा ही प्रेम में प्रेमी का मिल जाना
होता है प्रेम वो सच्चा के प्रेमी में ही मिल जाना
निभाकर प्रेम धरती से घन सदा हमको सिखाते हैं
प्रेम की पूर्ण परिभाषा स्वयं मिटकर बताते हैं
★★★

प्राची मिश्रा

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